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शु॒क्रश्च॒ शुचि॑श्च॒ ग्रैष्मा॑वृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तःश्लेषो᳖ऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽअ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽइ॒मे। ग्रैष्मा॑वृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽइन्द्र॑मिव दे॒वाऽअ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम् ॥६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शु॒क्रः। च॒। शुचिः॑। च॒। ग्रैष्मौ॑। ऋ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सव्र॑ता॒ इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। इ॒मेऽइती॒मे। ग्रैष्मौ॑। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भि॒ऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒ऽसंवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वे इति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:6


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी ग्रीष्म ऋतु का व्याख्यान अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्री-पुरुषो ! जैसे (मम) मेरे (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसा के योग्य होने के लिये जो (शुक्रः) शीघ्र धूली की वर्षा और तीव्र ताप से आकाश को मलीन करने हारा ज्येष्ठ (च) और (शुचिः) पवित्रता का हेतु आषाढ़ (च) ये दोनों मिल के प्रत्येक (ग्रैष्मौ) ग्रीष्म (ऋतू) ऋतु कहाते हैं। जिस (अग्नेः) अग्नि के (अन्तःश्लेषः) मध्य में कफ के रोग का निवारण (असि) होता है, जिससे ग्रीष्म ऋतु के महीनों से (द्यावापृथिवी) प्रकाश और अन्तरिक्ष (कल्पेताम्) समर्थ होवें, (आपः) जल (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, (ओषधयः) यव वा सोमलता आदि ओषधियाँ और (अग्नयः) बिजुली आदि अग्नि (पृथक्) अलग-अलग (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें। जैसे (समनसः) विचारशील (सव्रताः) सत्याचरणरूप नियमों से युक्त (अग्नयः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी को (अन्तरा) (ग्रैष्मौ) (ऋतू) (अभिकल्पमानाः) सन्मुख होकर समर्थ करते हुए (देवाः) विद्वान् लोग (इन्द्रमिव) बिजुली के समान उन अग्नियों की विद्या में (अभिसंविशन्तु) सब ओर से अच्छे प्रकार प्रवेश करें, वैसे (तया) उस (देवतया) परमेश्वर देवता के साथ तुम दोनों (इमे) इन (द्यावापृथिवी) प्रकाश और पृथिवी को (ध्रुवे) निश्चल स्वरूप से इन का भी (अङ्गिरस्वत्) अवयवों के कारणरूप रस के समान (सीदतम्) विशेष कर के ज्ञान कर प्रवर्त्तमान रहो ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वसन्त ऋतु के व्याख्यान के पीछे ग्रीष्म ऋतु की व्याख्या करते हैं। हे मनुष्यो ! तुम लोग जो पृथिवी आदि पञ्चभूतों के शरीरसम्बन्धी वा मानस अग्नि हैं कि जिन के विना ग्रीष्म ऋतु नहीं हो सकता, उन को जान और उपयोग में ला के सब प्राणियों को सुख दिया करो ॥६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ ग्रीष्मर्तुवर्णनमाह ॥

अन्वय:

(शुक्रः) य आशु पांसुवर्षातीव्रतापाभ्यामन्तरिक्षं मलिनं करोति स ज्येष्ठः (च) (शुचिः) पवित्रकारक आषाढः (च) (ग्रैष्मौ) ग्रीष्मे भवौ (ऋतू) यावृच्छतस्तौ (अग्नेः) पावकस्य (अन्तःश्लेषः) मध्य आलिङ्गनम् (असि) अस्ति (कल्पेताम्) समर्थयेताम् (द्यावापृथिवी) प्रकाशान्तरिक्षे (कल्पन्ताम्) (आपः) जलानि (ओषधयः) यवसोमाद्याः (कल्पन्ताम्) (अग्नयः) पावकाः (पृथक्) (मम) (ज्यैष्ठ्याय) अतिशयेन प्रशस्यस्य भावाय (सव्रताः) सत्यैर्नियमैः सह वर्तमानाः (ये) (अग्नयः) (समनसः) मनसा सह वर्तमानाः (अन्तरा) मध्ये (द्यावापृथिवी) (इमे) (ग्रैष्मौ) (ऋतू) (अभिकल्पमानाः) आभिमुख्येन समर्थयन्तः (इन्द्रमिव) यथा विद्युतम् (देवाः) विद्वांसः (अभिसंविशन्तु) अभितः सम्यक् प्रविशन्तु (तया) (देवतया) दिव्यगुणया (अङ्गिरस्वत्) अङ्गानां रसः कारणं तद्वत् (ध्रुवे) निश्चले (सीदतम्) विजानीतम् ॥६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रीपुरुषौ ! यथा मम ज्यैष्ठ्याय यौ शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू ययोरग्नेरन्तःश्लेषोऽ(स्य)स्ति याभ्यां द्यावापृथिवी कल्पेतामापः कल्पन्तामोषधयोग्नयश्च ये पृथक् कल्पन्तां यथा समनसः सव्रता अग्नयोऽन्तरा कल्पन्ते तैर्ग्रैष्मावृतू अभिकल्पमाना देवा भवन्त इन्द्रमिव तानग्नीनभिसंविशन्तु तथा तया देवतया सह युवामिमे द्यावापृथिवी ध्रुवे एतौ चाङ्गिरस्वत् सीदतम् ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। वसन्तर्त्तुव्याख्यानानन्तरं ग्रीष्मर्त्तुर्व्याख्यायते। हे मनुष्याः ! यूयं ये पृथिव्यादिस्थाः शरीरात्ममानसाश्चाग्नयो वर्त्तन्ते, यैर्विना ग्रीष्मर्त्तुसंभवो न जायते, तां विज्ञायोपयुज्य सर्वेभ्यः सुखं प्रयच्छत ॥६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. वसंत ऋतूच्या व्याख्येनंतर ग्रीष्म ऋतूची व्याख्या केली जात आहे. हे माणसांनो ! पृथ्वी वगैरे पंचमहाभूतांतील मन व शरीरासंबंधी अग्नीचे जे स्वरूप आहे ते जाणा. कारण त्याखेरीज ग्रीष्म ऋतू होऊ शकत नाही. तेव्हा त्याचा व्यवस्थित उपयोग करून सर्व प्राण्यांना सुखी करा.